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कोसी और मिथिला की संस्कृति में प्रकृति की पूजा उपासना का विशेष महत्व,उत्सवों की संस्कृति का पर्व है चौरचन

कोसी और मिथिला की संस्कृति में प्रकृति की पूजा उपासना का विशेष महत्व है और इसका अपना वैज्ञानिक आधार भी है। चौरचन को ढेला चौथ भी कहा जाता है।

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संजय कुमार सुमन(साहित्यकार)
संजय कुमार सुमन(साहित्यकार)

“चौठी चंदा बड़े अनंदा..,उगे चांद कि लपकहु पूआ” आदि लोकोक्तियां कोसी औऱ मिथिलांचल में काफी लोकप्रिय रही है। भादो महीना के चौठ के मौके पर चांद के पूजा दर्शन के उपरान्त बच्चे पकवान पर टूट पड़ते हैं। खीर, पूआ, केला, सेब और कई तरह के पकवान। डाली में कई तरह के फल, पकवान और दही के बर्तन के साथ श्रद्धापूर्वक व्रती महिलाएं चन्द्र देवता को अ‌र्घ्य देती हैं। साथ ही समस्त परिवार के स्वास्थ्य, सुख और समृद्धि की कामना करती हैं।
जिस माटी की में प्रकृति की सुंदरता और संस्कृति की वैभवता हो उसकी प्रशंसा मानो सूर्य को दीपक दिखाने जैसा है।कोसी और मिथिला की संस्कृति विशेषतौर से त्योहारों एवं उत्सवों की संस्कृति है।हर महीने यानि कहें तो समय के छोटे- छोटे अंतरालों पर कोई ना कोई पर्व होता ही है और उससे जुड़ी होती है पूजा- पाठ की विधि और उससे जुड़ी अल्पना की संस्कृति और फिर वैदिक पाठ सँग गीत-संगीत।साथ ही हर पर्व-त्योहार की विशेषता उसके पकवान और पाक सज्जा से परिपूर्ण होती हुई।चौठचंद्र (चौरचन) कोसी औऱ मिथिला का एक ऐसा त्योहार है, जिसमें चांद की पूजा बड़ी धूमधाम से होती है।कोसी औऱ मिथिला की संस्कृति में सदियों से प्रकृति संरक्षण और उसके मान-सम्मान को बढ़ावा दिया जाता रहा है।कोसी और मिथिला के अधिकांश पर्व-त्योहार मुख्य तौर पर प्रकृति से ही जुड़े होते हैं।चाहे वह छठ में सूर्य की उपासना हो या चौरचन में चांद की पूजा का विधान।कोसी और मिथिला के लोगों का जीवन प्राकृतिक संसाधनों से भरा-पूरा है। उन्हें प्रकृति से जीवन के निर्वहन करने के लिए सभी चीजें मिली हुई हैं और वे लोग इसका पूरा सम्मान करते हैं।इस प्रकार कोसी और मिथिला की संस्कृति में प्रकृति की पूजा उपासना का विशेष महत्व है और इसका अपना वैज्ञानिक आधार भी है।
चौरचन को ढेला चौथ भी कहा जाता है।ढेला चौथ भादो महीने की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन मनाया जाता है। इस साल ढेला चौथ 22 अगस्त शनिवार को मनाया जा रहा है । इस दिन चांद को देखने में दोष होता है इसलिए इसे कलंक चौथ भी कहा जाता है। तो आइए हम आपको ढेला चौथ के बारे में बताते हैं।
*ढेला चौथ पर चंद्रमा दर्शन में होता है दोष*
ऐसी मान्यता है कि गणेश चतुर्थी के दिन चांद के दर्शन करने से दोष होता है। जो भी उस दिन चंद्रमा के दर्शन करता है उन्हें मिथ्या कलंक का सामना करना पड़ता है।

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चांद की पूजा की अनोखी परंपरा

घर की बुजुर्ग स्त्री या व्रती महिला आंगन में बांस के बने बर्तन में सभी सामग्री रखकर चंद्रमा को अर्पित करती हैं, यानी हाथ उठाती हैं।इस दौरान अन्य महिलाएं गाना गाती हैं ‘पूजा के करबै ओरियान गै बहिना, चौरचन के चंदा सोहाओन।’ यह दृश्य अत्यंत मनोरम होता है।चौरचन पर्व मनाने के पीछे जो कारण है, वह अपने आप में बहुत खास है।आखिर लोक परंपरा में किसी भी त्योहार को मनाने के पीछे एक खास मनोवृत्ति या मनोविज्ञान होता है, जो किन्हीं कारणों से गढ़ा जाता है।कोसी औऱ मिथिला में चौरचन मनाए जाने के पीछे भी एक खास तरह की मनोवृत्ति छिपी हुई है।चौरचन पूजा यहां के लोग सदियों से इसी अर्थ में मनाते आ रहे हैं।पूजा में शरीक सभी लोग अपने हाथ में कोई न कोई फल जैसे खीरा व केला रखकर चांद की अराधना एवं दर्शन करते हैं।चौठचंद्र की पूजा के दैरान मिट्टी के विशेष बर्तन, जिसे मैथिली में अथरा कहते हैं, में दही जमाया जाता है।इस दही का स्वाद विशिष्ट एवं अपूर्व होता है।चांद की पूजा सभी धर्मो में है।मुस्लिम धर्म में चांद का काफी महत्व है। इसे अल्लाह का रूप माना जाता है। अमुक दिन चांद जब दिखाई देता है तो ईद की घोषणा की जाती है।चांद देखने के लिए लोग काफी व्याकुल रहते हैं।चांद की रोशनी से शीतलता मिलती है।इस रोशनी को इजोरिया (चांदनी) कहते हैं।चांदनी रात पर कई गाने हैं जो रोमांचित करता है।प्रकृति का नियम है जो रात-दिन चलता रहता है।दोनों का अपना महत्व है।अमावस्या यानी काली रात, पूर्णिमा यानी पूरे चांद वाली रात।भादव महीने में अमावस्या के बाद चतुर्थी तिथि को लोग चांद की पूजा करते हैं, जिससे दोष निवारण होता है।साथ ही कार्तिक पूर्णिमा के दिन मिथिला में चांद की पूजा ‘कोजागरा’ के रूप में मनाया जाता है।

*ढेला चौथ से जुड़ी कथा*
एक बार गणेश से कहीं जा रहे थे। संयोग वश उनका पैर कीचड़ में फिसल गया। गणेश जी के इस तरह फिसलने से चंद्रमा हंस पड़े। चंद्रमा के इस व्यवहार से गणेश जी बहुत क्रुद्ध हुए और उन्होंने चंद्रमा को श्राप दे दिया आज के दिन तुम्हारे दर्शन से लोगों को मिथ्या कलंक लगेगा। अगर किसी ने चांद को देख लिया तो पत्थर फेंकने से दोष दूर हो जाएगा।
चौठ चन्द्र के अराध्य देवता विनायक गणपति अर्थात गणेश बुद्धि के अधिपति हैं। मान्यता है कि भगवान गणपति में विराट पुरूष की बुद्धि है और वो समस्त कष्टों के निवारण कर्ता हैं। इसी मान्यता के तहत हिन्दू धर्म के सभी धर्मावलंबी महिलाएं और पुरूष अर्थात परिवार के सभी सदस्यों के कष्टों का निवारण होता है, वहीं परिवार में लुप्त हो गई यश, धन और संपदा भी वापस आती है।
हालांकि दूसरी मान्यता यह भी है कि चौठ चंद्र पूजा के दिन चंद्र देवता को व्रती महिलाएं अ‌र्घ्य देती है। कहा जाता है कि चंद्र देवता को श्रापवश कलंक लगा हुआ है उसी कलंक से मुक्ति पाने के लिए चौठ चंद्र व्रत कर महिलाएं अपने परिवार पर लगे कलंक से भी मुक्ति पाती है। इतना ही नहीं चंद्र देवता की अराधना से असाध्य कष्ट और बीमारी भी दूर होती है।
*श्रीकृष्ण पर भी लगा था कलंक*

ढेला चौथ के बारे में एक कथा प्रचलित है कि द्वारिकापुरी में एक सूर्यभक्त रहता था जिसका नाम सत्राजित था। सत्राचित की भक्ति से सूर्य भगवान बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने सत्राचित को एक मणि प्रदान की। मणि के प्रभाव से सब तरफ सुख शांति थी किसी प्रकार का कोई दुख और आपदा नहीं थी। एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने यह मणि राजा उग्रसेन को देने की सोची। सत्राचित यह बात जानता था इसलिए इसने वह मणि अपने भाई प्रसेन को दे दी।
लेकिन एक बार प्रसेन घने जंगल में शिकार करने जाते हैं। वन में एक शेर से प्रसेन का सामना होता है और वह उन्हें मारकर खा जाता है। इसी तरह एक बार जांबवंत जंगल में घूमते हुए गया और वहां उस शेर को देखा। शेर के मुख में मणि देखकर उसने शेर को मारकर मणि ले लिया। जब प्रजा को यह बात पता चली तो प्रजा ने सोचा कि श्रीकृष्ण ने प्रसेन को मारकर मणि ले ली। इस बात श्रीकृष्ण बहुत दुखी हुए और प्रसेन को खोजने के लिए जंगल चले गए। जंगल में उन्होंने प्रसेन का मृत शरीर देखा। प्रसेन के मृत शरीर के पास शेर था और जांबवत के पैरों के निशान थे। तब श्रीकृष्ण जांबवंत के पास गए उससे यह बात पूछने लगे। तब जांबवंत ने भगवान से माफी मांगी और बात बतायी।
इसके जांबवंत ने अपनी कन्या जांबवंती का विवाह श्रीकृष्ण से किया और स्यमंतक मणि भी दी। इस तरह जब राज्य की प्रजा को यह बात पता चली तो सबने भगवान श्रीकृष्ण से क्षमा मांगी। इस तरह उस दिन चंद्रमा का दर्शन करने से भगवान के ऊपर भी झूठा आरोप लगा था जो बाद में गलत सिद्ध हुआ।
*ढेला फेंकने या गाली देने की है प्रथा*
भारत के कुछ हिस्से में यह कहावत प्रचलित है कि ढेला चौथ का चांद दोषपूर्ण होता है। अगर किसी ने यह चांद देख लिया तो उसके ढेला फेंकने से यह दोष दूर जाता है। इसके अलावा गालियां देने से चंद्रमा के दर्शन का दोष दूर हो जाता है।

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