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गेहूं आपके सेहत के लिए न केवल हानिकारक है बल्कि जहर है

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कोसी टाइम्स स्पेशल डेस्क  वर्तमान वैश्विक महामारी कोरोना से निपटने के लिए दुनिया भर में रोग प्रतिरोधक क्षमता यानि इम्यूनिटी (immunity) बढ़ाने पर बात की जा रही है। लेकिन सवाल उठता है कि रोग प्रतिरोधक क्षमता (immunity) को कैसे बढ़ाया जाए? आज के समय में हर कोई इंस्टेंट (फटाफट) समाधान चाहता है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के लोगों के जीवन में व्यापक पहुंच और इन माध्यमों पर बिना वास्तविक ज्ञान के उटपटांग प्रवचन बांटते हजारों झोलाछाप विशेषज्ञों ने लोगों के लिए स्वास्थ्य के क्षेत्र में भ्रामक स्थिति उत्पन्न कर दी है। कोरोना के इस दहशत भरे माहौल में जरूरी है कि व्यावहारिक पक्षों के जानकार लोगों व विशेषज्ञों द्वारा रोग प्रतिरोधक क्षमता के विभिन्न रोगों के साथ कनेक्शन पर बात की जाये।

कोसी टाइम्स ने आईआईटियन व मॉर्गन स्टैनली की पूर्व वाइस प्रेसिडेंट ऋचा रंजन से कोरोना से बचाव में पारंपरिक जीवन शैली के महत्व पर विस्तृत बातचीत की है। उन्होंने बताया कि रोग प्रतिरोधक क्षमता (immunity) को अचानक से नहीं बढ़ाया जा सकता है। यह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है, जिसमें खानपान के साथ-साथ हमारे पूर्वजों की जो पारंपरिक जीवन शैली थी, उसको भी हमें देखनी पड़ेगी। विज्ञान तकनीक की दुनिया में एक शब्द है ‘एपीजेनेटिक्स’ जिसका फौरी तौर पर अर्थ होता है कि हम जो भी खाते हैं, हमारी जो जीवन शैली है वह एक सॉफ्टवेयर के रूप में हमारे शरीर में अंतर्निहित हो जाती है और यही सॉफ्टवेयर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होते रहती है।(immunity)

ऋचा रंजन ने क्या कुछ कहा है क्लिक कर देखिये 

उन्होंने आगे बताया कि हमारी वर्तमान पीढ़ी अपने पूर्वजों के जीवन शैली और प्रकृति की समीप्यता से बड़ी तेजी से दूर होती जा रही है, जिससे कि एपीजेनेटिक्स भी बड़ी तेजी से बदल रहा है और यह मानव जाति के अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी जैसा है। 1960-70 के बाद से हम भारतीयों के खानपान की शैली में बदलाव आया है। साठ के दशक पहले तक हम गेहूं से बने खाद्य पदार्थों का उपयोग न के बराबर करते थे। इसके बाद से गेहूं आधारित खाद्य पदार्थों का उपयोग काफी बढ़ गया है।

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हरित क्रांति से भारतीय कृषि के पैटर्न और खासकर गेहूं की फसल की बात करें तो एक बड़ा बदलाव जो आया है वह यह कि हमारे देसी गेहूं का स्थान हाइब्रिड ड्वार्फ मैक्सिकन गेहूं ने ले लिया है। हमारे देसी गेहूं में ग्लूटेनिन व ग्लाइडीन प्रोटीन की मात्रा कम होती थी, जबकि मैक्सिकन गेहूं में इन दो प्रोटीन की मात्रा बहुत ज्यादा होती है। गेहूं को पचाने में हमारे पाचन तंत्र को काफी मशक्कत करनी पड़ती है जिसका परिणाम यह होता है कि ग्लाइडिन प्रोटीन धीरे-धीरे विषाक्त ग्लूटियोमॉर्फिन या जिसे ग्लियाडोरफिन भी कहते हैं में परिवर्तित हो जाता है, जो कि हमारे शरीर को हानि पहुँचाता है।

ग्लूटेन गेहूँ का मुख्य संचित प्रोटीन(~90%) होता है। ग्लूटेनिन व ग्लाईडीन से मिलकर ग्लूटेन बनता है। ग्लाईडीन के जटिल पेप्टाइड संरचना के कारण इसका पाचन कठिन होता है। फलतः यह अफीम जैसे संरचना वाले पेप्टाइड (opioid peptide) ग्लूटियोमॉर्फिन या ग्लाइडोमॉर्फिन में बदल जाता है। यह धीरे धीरे हमारे पाचन तंत्र को हानि पहुँचाता है, परिणामस्वरुप अनेक बीमारी उत्पन्न होती है। आगे चलकर गेहूँ से बने यही जटिल पेप्टाइड हमारे केंद्रीय तन्द्रिका तंत्र (central nervous system) में मौजूद ओप्याइड रिसेप्टर (opioid receptor) से चिपक जाते हैं और हमारे मस्तिष्क की सोचने समझने की क्षमता पर अफीम जैसा असर करते हैं.

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Richa Ranjan

उन्होंने आगे बताया कि हमारे पूर्वज विज्ञान और टेक्नोलॉजी के स्तर पर भले हमसे पीछे थे पर व्यवहारिक ज्ञान व प्रकृति के देखभाल के स्तर पर वर्तमान पीढ़ी से बहुत आगे थे। ऐसा नहीं था कि हमारे पूर्वज गेहूं आधारित खाद्य पदार्थों का बिल्कुल भी उपभोग नहीं करते थे पर वे संतुलन बनाकर चलते थे, शायद तभी हमारे ग्रंथों में ‘अति सर्वत्र वर्जयते’ का वर्णन मिलता है। गेहूं आधारित ठेकुआ या अन्य खाद्य पदार्थ को विशेष प्रयोजन हेतु ही तैयार किया जाता था। लेकिन आज हम सुबह जगने से लेकर रात सोने तक में गेहूं आधारित खाद्य पदार्थों का दो से तीन बार भोजन के रूप में उपभोग करते हैं। रोटी ,पराठा, पिज्जा ,समोसा और खासकर हमारे बिहार का फेवरेट लिट्टी, इन सभी में तो गेहूं का ही इस्तेमाल होता है। दर्शनशास्त्र के एक विद्वान का प्रसिद्ध कथन है कि रोटी में गेहूं की सत्ता होती है और गेहूं की यह सत्ता आम जनता के पाचन तंत्र पर बहुत भारी पड़ रही है।

( अगले भाग में पढ़िए दूध के उपभोग से जुड़ी व्यवहारिक बातें….)

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