रश्मों-रिवाज़ की दीवार गिराएँ तो अच्छा
ये धूप मेरे घर तक भी आए तो अच्छा है
रिश्तों की सीलन को सुखाए तो अच्छा है
जो आँधियाँ अक्सर छप्पर उड़ाया करती हैं
एक दफे मेरा अना* भी उड़ाए तो अच्छा है
रात,सुबह को सुबह,रात को भूल जाती है
दो पहर दुनिया हमें भी भुलाए तो अच्छा है
रूदाली कमरों में साँसें सब ज़ब्त हैं जैसे
ये बारिश आँखों से बरस जाए तो अच्छा है
तक्कलुफ़्फ़ करके आज़िज़ हो गए है सब
रश्मों-रिवाज़ की दीवार गिराएँ तो अच्छा है
*अना-अहंकार
सलिल सरोज