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प्रेम शाश्वत है , समर्पण है और वेलेण्टाइन डे है वासना का व्यापार : रूचि स्मृति

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रूचि स्मृति

आपकी बात @ कोसी टाइम्स .

तोड़ देना चाहती हूं, अभिजात्य मौन की स्वयंभू वर्जनाएं….
करना चाहती हूं, सस्वर उद्घोष कि चराचर सृष्टि, नाद के इस कोलाहल में आकंठ डूब जाए…
मन के मुक्ताकाश पर फहराती तुम्हारी नाम पताका दूर क्षितिज से देख सके सब…अंतस सागर में जो हिलोर उठे उस पर तुम्हारी चांदनी का प्रतिबिंब इतना स्पष्ट हो कि हर आकुल ह्रदय को उसमें अपनी छवि दिख जाए….हां, मैं कहना चाहती हूं, “मैं प्रेम में हूं….. ………शैली बक्षी की इस पंक्ति से प्रेम के उस बिन्दु पर प्रकाश पड़ता है जिसका कभी सच में विकास नहीं हुआ ।मतलब कि लड़कियों के नजरिये का ।

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आज का प्रेम लड़कियों की दृष्टि का भी है , जो केवल उनको पसंद वो बेहिचक कहती हैं ,बिना लागलपेट । सही भी है , हम लड़कियाँ क्यूं हर बार किसी की पसंद बने तथा उनके हिसाब से खुद को ढ़ालें । खुद लड़के पसंद करे , उन्हें बदलने की आवश्यक्ता भी नहीं होगी , क्युंकी वो पहले से ही हमारी पसंद होगें ना ।प्रेम हमारा स्वाभाव है , हम प्रेम वाले ही है । हमारा दिल जिनके लिए धड़कता उनके लिए हम कुछ भी कर जाने की हिम्मत रख पाते हैं । इसमें खुद बहुत शक्ति है । रिश्ते सम्हालना , एक दूसरे की इज्जत करना हम सीख जाते हैं । ओशो कहते हैं”आदमी के व्यक्तित्व के तीन तल हैं: उसका शरीर विज्ञान, उसका शरीर, उसका मनोविज्ञान, उसका मन और उसका अंतरतम या शाश्वत आत्मा। प्रेम इन तीनों तलों पर हो सकता है लेकिन उसकी गुणवत्ताएं अलग होंगी।

कुछ उदाहरण.1.शरीर के तल पर वह मात्र कामुकता होती है। तुम भले ही उसे प्रेम कहो क्योंकि शब्द प्रेम काव्यात्म लगता है, सुंदर लगता है। लेकिन निन्यानबे प्रतिशत लोग उनके सैक्स को प्रेम कहते हैं। सैक्स जैविक है, शारीरिक है। तुम्हारी केमिस्ट्री, तुम्हारे हार्मोन, सभी भौतिक तत्व उसमें संलग्न हैं।2.संगीतज्ञ , चित्रकार, कवि एक अलग तल पर जीता है। वह सोचता नहीं, वह महसूस करता है। और चूकी वह हृदय में जीता है वह दूसरे व्यक्ति का हृदय महसूस कर सकता है। सामान्यतया इसे ही प्रेम कहते हैं। यह विरल है। मैं कह रहा हूं शायद केवल एक प्रतिशत, कभी-कभार।””चंद पंक्तियों में कहा जाए तो ..पहले प्रकार के प्रेम को सैक्स कहना चाहिए। दूसरे प्रेम को प्रेम कहना चाहिए, तीसरे प्रेम को प्रेमपूर्णता कहना चाहिए: एक गुणावत्ता, असंबोधित; न खुद अधिकार जताता है, न किसी को जताने देता है। यह प्रेमपूर्ण गुणवत्ता ऐसी मूलभूत क्रांति है कि उसकी कल्पना करना भी अति कठिन है।इन सब के अलावे भी प्रेम बहुत कुछ है , और यह सबका अपना-अपना है । बिना मिलावट , बिना नाप का । इससे ज्यादा बहाव किसी में नहीं तो ठहराव भी किसी में नहीं । जिस रूप में भजो उसी रूप में प्राप्त होता है ।

 

इनपुट : सुभाष चन्द्र झा
कोशी टाइम्स @ सहरसा.

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