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फारबिसगंज के रवीश रमन रचित कविता- “मज़हबी रंग”

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“मज़हबी रंग”

कभी-कभी अजीब लगता है
देख कर हो जाता हूं दंग
मजहब बताने लगा है
हमारा और तुम्हारा रंग

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देखो कहते है कितनी
अकड़ और शान से हम
भगवा हो गए हो तुम
हरा रंग है हम

भूल गए बचपन के दिन
खेला करते थे संग
न था कोई हमारा मज़हब
न था कोई हमारा रंग

सोचो अपने देश की
देखो प्रकृति के रंग
कुछ नही होता दोस्त
हमारा और तुम्हारा “मज़हबी रंग”

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