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इस बार कौन है वो गोप जो मधेपुरा का होगा खेवनहार,पढ़िए खास रिपोर्ट….

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प्रशांत कुमार@कोसी टाइम्स 

बिहार की राजनीति नए उतार-चढ़ाव से गुजरेगी। ऐसे तरह-तरह के अनुमान इन दिनों लगाए जा रहे हैं। देश का सबसे जागरूक राजनीतिक प्रदेश होने का गौरव बिहार को हासिल है। बिहार का यादव नेतृत्व क्या बिखर गया है।यह बिरादरी क्यों नए नेतृत्व की खोज कर रही है? यदि ऐसा है तो गोप का पोप कौन होगा? यह सवाल हर किसी के लिए दिलचस्पी का बना हुआ है। इस बात पर चारो तरफ बहस हो रही है। लोकसभा चुनाव की तैयारियों के मद्देनजर यादव नेताओं के टूटने, छूटने और जुड़ने का सिलसिला जारी है। साथ ही पर्दे के पीछे जातीय आधार पर चुनावी व्यूह रचना हो रही है। ऐसे में यह सवाल अधिक महत्व वाला हो गया है।

मधेपुरा लोक सभा जितना कोशी की बाढ़ के लिए जाना जाता है उससे ज्यादा मंडल आयोग वाले बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल के कारण जाना जाता है। 1967 में अस्तित्व में आए मधेपुरा संसदीय क्षेत्र के बारे में वर्षो से एक कहावत प्रचलित है- “रोम अगर पोप का तो मधेपुरा गोप का।(दरअसल मधेपुरा में यादव समाज न केवल बड़ी संख्या में हैं बल्कि यहाँ पर वह हर क्षेत्र में दबदबा भी रखता है।इसीलिए यह कहावत बनी है।)“ इस बार वह गोप कौन होगा जो मधेपुरा का पोप बनेगा?  पहले भी इस सीट को लेकर बहुत खींचातानी, रस्साकशी होती रही है। लोकसभा में मधेपुरा का प्रतिनिधित्व कौन करेगा? मधेपुरा का प्यार बाहरी पर उमड़ता रहा है। इस बार पप्पू यादव को मिलेगा या शरद यादव के पाले में यह सीट जायेगी? उम्मीदवार यही दो हैं, दृश्य बदल चुका है, पार्टी बदल चुकी है, कार्यकर्ता-समर्थक बदल चुके हैं मगर मुख्य मुकाबला इन्हीं दोनों के बीच होना तय है। वर्ष 1967 से 2014 के बीच लोकसभा चुनाव हुए। किंतु, यहां के मतदाताओं ने हर बार यादव समुदाय के प्रत्याशी को ही लोकसभा में प्रतिनिधित्व करने का मौका दिया है।

देश में नरेंद्र मोदी की हवा बहने के दावे करने वाले भाजपाई इस बार इस मिथक को वैश्य व अगड़ी जाति को आधार वोट बैंक बनाकर तोड़ने का दावे कर रहे हैं। किंतु, उनके दावों की हकीकत तो चुनाव परिणाम के बाद ही सामने आयेगी। मधेपुरा के आंगन में शरद यादव और लालू यादव के बीच आमना-सामना हो चुका है। दोनों एक-दूसरे को एक-एक बार परास्त कर चुके हैं। शरद यादव व लालू प्रसाद यादव का यहां परंपरागत प्रभाव रहा है। शरद यादव की भिडंत दूसरी पीढ़ी के पप्पू यादव से भी हो चुकी है और शरद यादव परास्त भी हुए। इस बार लोक सभा की स्थिति बिल्कुल अलग मानी जा रही है।राजद से उम्मीदवारी देकर लोकसभा पहुंचे पप्पू यादव किस पार्टी से चुनाव लड़ेंगे अभी कहना मुश्किल है।शरद यादव ने अपनी नई लोजद पार्टी बनाई है कहा जा रहा है कि वे मधेपुरा से ही चुनाव लड़ेंगे।लेकिन नितीश कुमार यह चाहेंगे कि अपनी पार्टी जदयू से ऐसे उम्मीदवार को चुनाव मैदान में उतारा जाय जो शरद यादव को शिकस्त दे सके।

संसद में पहुंचने के लिए पप्पू यादव के लिए सबसे सुरक्षित सीट मधेपुरा ही मानी जा रही है। वैसे मधेपुरा लोकसभा में हमेशा रोचक मुकाबला होता रहा है। मधेपुरा लोकसभा समाजवादियों की धरती रही है। यहां की जमीन कांग्रेस के लिए उर्वरा साबित नहीं हुई। मधेपुरा लोकसभा के अस्तित्व में आने के बाद 13 बार चुनाव व एक उपचुनाव हुए। कांग्रेस को सिर्फ तीन बार सफलता मिली। सबसे अधिक बार चुनाव जीतने का रिकार्ड जनता दल युनाइटेड के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव के नाम है। बीपी मंडल, राजेंद्र प्रसाद यादव, लालू प्रसाद दो-दो बार सांसद चुने गए। भाजपा को इस सीट पर कभी कामयाबी नहीं मिली है।

इस बार फिर दृश्य बदल चुका है। शरद यादव-लालू प्रसाद के करीब आ गये हैं जबकि पप्पू यादव लालू प्रसाद की विरासत के खिलाफ नया नेतृत्व तैयार करने में जुटे हैं। अब लड़ाई इस रूप में है कि शरद यादव और लालू प्रसाद की जोड़ी के सामने मुकाबले में कौन खड़ा होगा, ऐसी चर्चा है। लेकिन दो  दिग्ग्जों की जोड़ी के खिलाफ क्या पप्पू यादव टिक पाएंगे? उधर जदयू से मधेपुरा के लिए मंत्री दिनेश चन्द्र यादव,पूर्व मंत्री नरेन्द्र नारायण यादव,शरद यादव के खासम खास डॉ सत्यजीत यादव और पूर्व मंत्री डा.रेणु कुमारी कुशवाहा के नाम की चर्चा है। दिनेश चन्द्र यादव शायद ही यहां से लड़ना पसंद करें क्योंकि वे खगड़िया सीट से एक बार सांसद बन चुके है। नरेन्द्र नारायण यादव शरद यादव के शार्गिद रहे हैं वे उस्ताद के खिलाफ नहीं ही लड़ेंगे।

डा.रेणु कुशवाहा बिहारीगंज विधानसभा से विधायक रह चुकी हैं,क्षेत्र पर अपना अलग प्रभाव भी है। डॉ सत्यजीत यादव अभी जेडीयू प्रदेश राजनीति सलाहकार समिति के सदस्य हैं। मंडल मसीहा के पोते निखिल मंडल के नाम की भी चर्चा है।जो जदयू के प्रदेश प्रवक्ता हैं।मधेपुरा गोप का अवश्य है लेकिन मधेपुरा का प्यार बाहरी पर ज्यादा उमड़ता है। वैसे लड़ाई  दिलचस्प होगी, उम्मीदवार वही रहेगा, पीछे अलग दल होंगे। पिछली बार मोदी लहर के बावजूद पप्पू यादव ने शरद यादव को मात दी थी। तब शरद जदयू उम्मीदवार के तौर पर लड़ रहे थे, किसी बड़े दल का समर्थन नहीं था जबकि राजद के उम्मीदवार पप्पू यादव थे। उसके बावजूद शरद यादव को तीन लाख वोट मिले, वे महज कुछ हजार वोट से पीछे रह गये। ऐसे में पप्पू यादव के लिए मधेपुरा की राह आसान नहीं है।अब जबकि लोजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव महागठबंधन के तहत अपनी पार्टी से चुनाव लड़ेंगे।

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वैसे पप्पू यादव सीधे-सीधे यह स्वीकार नहीं करते हैं कि वे यादव समुदाय का नेतृत्व हासिल करने की राजनीतिक महत्वाकांक्षा रखते हैं। हां, वे यह जरूर कहते हैं, ”यह सच्चाई है कि बिहार में यादव समुदाय हमेशा से पिछड़े और शोषित वर्गों के साथ खड़ा रहा है। हम उनके साथ खड़े हैं, जो पिछड़े हैं,बेजुबान हैं,शोषित हैं, उन नवयुवकों के साथ हैं, जिनके भविष्य को अंधकार में डालने की कोशिश हो रही है।”

यह साफ है कि पप्पू यादव जो भी सफलता प्राप्त करेंगे, उसका सीधा असर लालू प्रसाद की पार्टी पर होगा। हालांकि, कुछ लोग यह भी मानते हैं कि पप्पू यादव अब पहले जितने प्रभावी नहीं रहे हैं। लेकिन दूसरा सच यह है कि पप्पू यादव एक मात्र विरोधी  नेता रहे हैं, जो नीतीश के कार्यकाल में अपना प्रभाव खोकर एक बार फिर उठ खड़े हुए हैं। वे जन क्रांति अधिकार मोर्चा बनाकर  अपनी राजनीतिक जमीन को विस्तार देने की कोशिश कर रहे हैं।पप्पू की महत्वकांक्षा भी हिलोरे मार रही है। पप्पू चाहते थे कि लालू उन्हें बिहार चुनाव में अपना राजनीतिक वारिस बनाकर पेश करें लेकिन लालू इसके लिए राजी नहीं थे। लालू पार्टी को पारिवारिक पार्टी बनाकर रखना चाहते हैं। पप्पू को लग गया कि राजनीतिक महत्वकांक्षा यहां पूरी नहीं हो सकती तो समय रहते उन्होंने रास्ता अलग कर लिया। नीतीश के खिलाफ बोलना उनकी व्यक्तिगत मजबूरी भी है। लालू के राज में पूर्णिया, मधेपुरा में विपक्षी नेताओं की जितनी भी राजनीतिक हत्याएं हुई किसी न किसी रूप में उसमें पप्पू यादव का नाम जरूर उछला। पप्पू यादव ने ही मधेपुरा में नीतीश की पार्टी के अध्यक्ष शरद यादव को हराकर चुनाव जीता है।

पप्पू यादव एकमात्र विरोधी  नेता हैं जो नीतीश के कार्यकाल में खत्म होकर फिर से उठ खड़े हुए हैं। पप्पू यादव के साथ उस दौर में जिन  ने राजनीति में कदम रखा था ज्यादातर  नेताओ का राजनीतिक अंत हो चुका है। बीते साल लोकसभा चुनाव में वही  नेता या उनके परिवार वाले जीतकर पहुंचे हैं जो समय रहते मोदी लहर पर सवार हो गये थे। लेकिन खिलाफ में रहकर भी पप्पू यादव न सिर्फ खुद चुनाव जीते बल्कि कांग्रेस के टिकट पर पत्नी को भी संसद पहुंचाया।

मधेपुरा या दुनियां के किसी भी क्षेत्र में अक्सर किसी खास जाति की समस्याएं प्राय: एक जैसी होती है और समस्याओं को सुलझाने में इन्हें एकजुट होना पड़ता है।शायद यही वजह है कि चुनाव के समय में किसी खास जाति के अधिकाँश वोट किसी खास प्रत्याशी के पक्ष में चले जाते हैं ।वैसे भी ये कड़वा सच है कि समाज को जाति और सम्प्रदाय में बाँट कर हमारे देश के नेता स्वार्थसिद्धि में सबसे आगे रहे हैं। अब देखना है कि यदि मधेपुरा के चुनाव में मुद्दा विकास नहीं बनता है तो फिर मधेपुरा की राजनीति में जातिगत समीकरण किस प्रत्याशी को सिंहासन पर बिठाती है और किसे धूल चटाती है ?

 

मधेपुरा लोकसभा से अब तक के सांसदों की सूची
1924 में हुए पहले बिहार-उड़ीसा विधान परिषद् के चुनाव में (उस समय लोक सभा क्षेत्र से भी बड़ी और तब मधेपुरा-सहरसा का नाम भागलपुर नॉर्थ था) से महान स्वंत्रता सेनानी और मुरहो के जमींदार स्व.रासबिहारी लाल मंडल के बड़े सुपुत्र स्व भुवनेश्वरी प्रसाद मंडल विजयी हुए थे। 1937 के बिहार विधान परिषद् के चुनाव में स्व.रासबिहारी लाल मंडल के द्वितीय सुपुत्र स्व कमलेश्वरी प्रसाद मंडल जीते थे।

आज़ाद भारत में हुए पहले चुनाव में भागलपुर नॉर्थ या भागलपुर -पूर्णियां से तीन उम्मीदवार विजयी घोषित हुए 
प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से आचार्य जे बी कृपलानी, कॉंग्रेस के अनूप लाल मेहता और रिजर्व सीट पर मुरहो के मंडल परिवार के यहाँ कार्यरत सोशलिस्ट पार्टी से किराय मुशहर। 
1957 में इस क्षेत्र का नाम सहरसा हो गया और कांग्रेस के ललित नारायण मिश्र और रिजर्व से कांग्रेस के ही भोला सरदार विजयी रहे। 
1962 में कांग्रेस के ललित नारायण मिश्र को हरा कर सोशलिस्ट पार्टी के भूपेंद्र नारायण मंडल विजयी रहे। इसी चुनाव में काँग्रेस ने आरोप लगाया था कि भूपेंद्र बाबू जातिगत नारा – ‘रोम पोप का, सहरसा गोप का’ , देकर जीते। बाद में पटना उच्च न्यायालय ने इस आरोप को आधारहीन माना। 
1967 से सहरसा और मधेपुरा अलग अलग क्षेत्र हो गए जब स्व रासबिहारी लाल मंडल के सबसे छोटे सुपुत्र, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बी पी मंडल मधेपुरा से जीते। • 1962: भूपेंद्र नारायण मंडल 
• 1967: बिन्ध्येश्वरी प्रसाद मंडल, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी 
• 1971: राजेंद्र प्रसाद यादव, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 
• 1977: बिन्ध्येश्वरी प्रसाद मंडल, जनता पार्टी 
• 1980: राजेंद्र प्रसाद यादव, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (उर्स) 
• 1984: महावीर प्रसाद यादव, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 
• 1989: रामेंद्र कुमार यादव रवि, जनता दल 
• 1991: शरद यादव, जनता दल 
• 1996: शरद यादव, जनता दल 
• 1998: लालू प्रसाद यादव, राष्ट्रीय जनता दल 
• 1999: शरद यादव, जनता दल (यूनाइटेड) 
• 2004: लालू प्रसाद यादव, राष्ट्रीय जनता दल 
• 2004: राजेश रंजन उर्फ़ पप्पू यादव, राष्ट्रीय जनता दल (लालू प्रसाद यादव के इस्तीफ़ा देने के कारण हुए उप चुनाव) 
• 2009: शरद यादव, जनता दल (यूनाइटेड)
• 2014: राजेश रंजन (पप्पू यादव), राष्ट्रीय जनता दल

लोकसभा सांसद और जन अधिकार पार्टी के अध्यक्ष पप्पू यादव ने 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर बड़ा एलान किया है।उनकी पार्टी समान विचार रखने वाले दलों के साथ मिलकर बिहार में 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ेगी।उन्होंने लालू यादव की पार्टी आरजेडी के साथ भविष्य में किसी भी तरह के गठजोड़ की संभावना से इंकार किया।वह आगामी लोकसभा चुनाव में बिहार में वैचारिक सहमति वालों के साथ तीन सीटों पर चुनाव लड़ेंगे, हालांकि उन्होंने बिहार की इन तीन लोकसभा सीटों के नाम नहीं बताए। 2020 का बिहार विधानसभा चुनाव वह तीसरे मोर्चे के रूप में लड़ेंगे।उन्होंने कांग्रेस के साथ “वैचारिक संबंध” होने की बात स्वीकारी।

पप्पू यादव ने कहा है कि महागठबंधन में उनके शामिल होने पर फैसला कांग्रेस को लेना है।एंट्री मिली तो ठीक वरना वह अकेले चलने को भी तैयार हैं।लिहाजा 2019 में बिना किसी बड़े गठबंधन के चुनाव में उतरना पप्पू के लिए बड़ी चुनौती बन गई है।एनडीए व राजद की तरफ से रेड सिग्नल देखने के बाद पप्पू यादव ने पिछले महीने कांग्रेस पर डोरे डालना शुरू कर दिया था।कांग्रेस के बिहार प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल से पप्पू यादव तीन बार मिल चुके हैं।मगर बात नहीं बनी।महागठबंधन के नेता इस बात को खुलकर स्वीकार करते हैं कि पप्पू यादव को लेकर तेजस्वी यादव ने पहले से ही नो एंट्री का बोर्ड लगा रखा है।तेजस्वी के इस वीटो को कांग्रेस भी नजरअंदाज नहीं कर रही।

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