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लोक अदालत: मामले के त्वरित निपटारे का बेहतरीन विकल्प,पुरे देश में आयोजित है आज लोक अदालत

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मुरली मनोहर घोष
कोसी टाइम्स@बारसोई, कटिहार.

भारत के न्यायालयों पर बढ़ते मुकदमों के बोझ को कम करने तथा लोगों को त्वरित एवं सस्ता न्याय दिलाने के उद्देश्य से आज 9 मार्च को देशभर में राष्ट्रीय लोक अदालत का आयोजन किया गया है ।इसमें मामलों को दोनों पक्षों के आपसी सहमति से निपटाए जाते हैं,लेकिन हमारे देश में अभी भी बहुत लोगों को लोक अदालत के बारे में जानकारी का घोर अभाव है। ऐसे में हम पत्रकारों, अधिवक्ताओं,अन्य बुद्धिजीवियों एवं प्रबुद्ध नागरिकों का यह दायित्व हो जाता है कि अदालत के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी आम लोगों तक पहुंचा कर उसे जागरूक करें ताकि न्यायालय पर से मुकदमों का बोझ कम हो सके तथा उन्हें बिना किसी खर्चा के त्वरित न्याय मिल सके । प्रस्तुत है यहां हमारे कोसी टाइम्स के बारसोई,कटिहार संवाददाता मुरली मनोहर घोष,जो पेशे से एक अधिवक्ता भी हैं, के द्वारा लोक अदालत के बारे में एक संक्षिप्त परिचय:

लोक अदालत क्या है:

भारत में विवादों के निपटारे की यह एक वैकल्पिक,त्वरित एवं सुलभ व्यवस्था है।जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि यह लोगों की अदालत है, जहां अदालत में लंबित मामलों/विवादों को दोनों पक्षों के बीच आपसी समझौते के आधार पर सद्भावनापूर्ण ढंग से निपटाया जाता है।इसे कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम,1987 के तहत कानूनी दर्जा दिया गया है।इस अधिनियम के तहत लोक अदालत द्वारा दिए गए निर्णय को वहीं मान्यता प्राप्त है,जो दीवानी अदालत का है।लोक अदालत द्वारा किए गए निर्णय अंतिम तथा सभी पक्षकारों पर बाध्यकारी होता है और इसके विरूद्ध देश के किसी भी न्यायालय में कोई अपील भी नहीं दायर की जा सकती है।

लोक अदालत का गठन:

लोक अदालत की स्थापना का विचार सर्वप्रथम भारत के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश माननीय श्री प्रफुल्लचंद्र नटवरलाल भगवती द्वारा दिया गया था।भारत में पहली लोक अदालत का आयोजन 1982 में गुजरात राज्य में किया गया।वर्ष 1976 में 42वें संशोधन के द्वारा संविधान में अनुच्छेद 39क जोड़ा गया तथा इसके तहत शासन से यह सुनिश्चित करने की अपेक्षा की गई कि भारत का कोई भी नागरिक आर्थिक अथवा किसी अन्य अक्षमताओं के कारण न्याय पाने से वंचित न रह जाए।यह उद्देश्य लिए 1980 में सर्वप्रथम केंद्र सरकार के निर्देशों पर देश में कानूनी सहायता बोर्ड की स्थापना की गई।बाद में इसे कानूनी जामा पहनाने के लिए भारत सरकार द्वारा विधिक सेवा प्राधिकार अधिनियम, 1987 पारित किया गया जो 9 नवंबर 1995 में देश में लागू हुआ।इस अधिनियम के तहत विधिक सहायता एवं लोक अदालत के संचालन का अधिकार राज्य स्तर पर राज्य विधिक सेवा प्राधिकार को मिला।

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लोक अदालत द्वारा मामले का संज्ञान:

धारा 20(1)- न्यायालय में लंबित किसी वाद/मामले का पक्षकार यदि चाहता है कि उसके वाद का निपटारा लोक अदालत के द्वारा हो और यदि इसके लिए उसका विरोधी पक्ष भी सहमत हो,तो न्यायालय द्वारा मामला लोक अदालत द्वारा निपटाए जाने योग्य पाए जाने पर लोक अदालत उसके क्षेत्राधिकार के मामलों का संज्ञान ले सकती है । परंतु लोक अदालत किसी ऐसे मामले/वाद पर संज्ञान नहीं ले सकती है जिसमें अशमनीय अपराध किए गये हो या पक्षकारों द्वारा सुलह या समझौता करने के लिए सहमति न प्राप्त हो।

लोक अदालत में मुख्यतः वैवाहिक/पारिवारिक मामले,शमनीय आपराधिक मामले,भूमि अधिग्रहण संबंधी मामले, श्रम विवाद,कामगारों को मुआवजा,बैंक संबंधी मामले,आवास बोर्ड और मलिन बस्ती और गृह ऋण संबंधित मामले, बिजली,टेलिफोन बिल संबंधी मामले,उपभोक्ता शिकायत मामले,गृह-कर सहित नगरपालिका/नगर पंचायत संबंधी मामले, सेलुलर कंपनियों के साथ विवाद के मामले, दुर्घटना एवं बीमा संबंधी मामले आदि निपटाए जा सकते हैं ।

लोक अदालतों से लाभ:

इसमें किसी वकील की जरूरत नहीं पड़ती है, कोई कोर्ट फीस नहीं लगता है,मामले का निपटारा तुरंत ऑन द स्पॉट होता है।पुराने मामलों में दाखिल कोर्ट फीस वापस हो जाती है,किसी को सजा नहीं होती है,मामले को बातचीत द्वारा सद्भावनापूर्वक हल होने से पक्षकारों के बीच कटुता नहीं उत्पन्न होता है,वर्षों इंतजार करने के बजाय न्याय तुरंत मिल जाता है-इससे धन एवं समय दोनों की बचत होती है तथा आर्थिक बदहाली के इस दौर में लोगों को मामला खत्म हो जाने से आर्थिक,मानसिक एवं शारीरिक चैन प्राप्त होता है तथा लोक अदालत का फैसला अंतिम होने के कारण इसके विरुद्ध किसी भी कोर्ट में अपील दायर नहीं की जा सकती है।

महत्वपूर्ण तथ्य:

लोक अदालत में मामलों के निपटाए जाने के लिए यह आवश्यक है कि सहमति देने वाले दोनों पक्षों के सभी व्यक्ति लोक अदालत के दिन सशरीर न्यायालय में उपस्थित हों।

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