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पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के जन्मदिन को लेकर है संशय,दो अक्टूबर नही आठ जुलाई को है जन्मदिन

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संजय कुमार सुमन समाचार सम्पादक

पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी के जीवन की सादगी देश के हर नेता के लिए उदाहरण रही। उनकी ज़िन्दगी से जुड़े कई ऐसे किस्से हैं जिससे इस बात का पता चलता है कि वो देश के सर्वोच्च लोकतांत्रिक पदों में से एक पर बैठे हुए भी कितने सरल थे।एक धर्मनिरपेक्ष, मजबूत, गौरवशाली भारत का सपना देखने वाले धरतीपुत्र लाल बहादुर शास्त्री को देश का सबसे सरल, सबसे ईमानदार, सबसे कर्मठ, सबसे तेजस्वी प्रधानमंत्री माना जाता है। वे देश के जवानों और किसानों की गरिमा का उद्घोष करने वाले पहले जननेता थे। लाल बहादुर शास्त्री जी भारत के पहले ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ के रूप मरण जाने जातें हैं। आज उनके जयंती पर आइये जानते हैं उनके जिन्दगी के बारे में, जो आज तक छुपे हुए हैं।इस आलेख में मैं कई तरह के रहस्यों पर से पर्दा भी उठाने का प्रयास कर रहा हूँ।

Lal Bahadur Shastri

भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को मुगलसराय, उत्तर प्रदेश में ‘मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव’ के यहां हुआ था। इनके पिता प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे। ऐसे में सब उन्हें ‘मुंशी जी’ ही कहते थे। बाद में उन्होंने राजस्व विभाग में क्लर्क की नौकरी कर ली थी। लालबहादुर की मां का नाम ‘रामदुलारी’ था।  जब लाल बहादुर शास्त्री केवल डेढ़ वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया था। उनकी माँ अपने तीनों बच्चों के साथ अपने पिता के घर जाकर बस गईं।उस छोटे-से शहर में लाल बहादुर की स्कूली शिक्षा कुछ खास नहीं रही लेकिन गरीबी की मार पड़ने के बावजूद उनका बचपन पर्याप्त रूप से खुशहाल बीता।उन्हें वाराणसी में चाचा के साथ रहने के लिए भेज दिया गया था ताकि वे उच्च विद्यालय की शिक्षा प्राप्त कर सकें। ननिहाल में रहते हुए उसने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। उसके बाद की शिक्षा हरिश्चन्द्र हाई स्कूल और काशी विद्यापीठ में हुई। काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलते ही शास्त्री जी ने अनपे नाम के साथ जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव हमेशा के लिए हटा दिया और अपने नाम के आगे शास्त्री लगा लिया।घर पर सब उन्हें नन्हे के नाम से पुकारते थे। वे कई मील की दूरी नंगे पांव से ही तय कर विद्यालय जाते थे, यहाँ तक की भीषण गर्मी में जब सड़कें अत्यधिक गर्म हुआ करती थीं तब भी उन्हें ऐसे ही जाना पड़ता था।

जन्मदिन को लेकर है संशय,दो अक्टूबर नही आठ जुलाई को है जन्मदिन

हर साल दो अक्टूबर को पूरी दुनिया में गांधी जयंती मनाई जाती है।इस दिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्म हुआ था ।देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्मदिन भी इसी दिन मनाया जाता है लेकिन उन्होंने मुगलसराय के जिस स्कूल में छठी क्लास तक पढ़ाई की, वहां के छात्र रजिस्टर में उनकी जन्म तिथि कुछ और दर्ज है। न केवल तिथि बल्कि साल में भी अंतर है। सरकारी रिकॉर्ड में लाल बहादुर शास्त्री के पैदा होने की तारीख जहां दो अक्टूबर, 1904 है, वहीं मुगलसराय के रेलवे बेसिक स्कूल (वर्तमान में ‘ईस्ट सेंट्रल रेलवे इंटर कॉलेज’) के रजिस्टर में उनकी जन्म तिथि आठ जुलाई, 1903 लिखी हुई है।ऐसे में सवाल पैदा होता है कि उनका सही जन्म दिवस कौन सा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम सब अभी तक गलत तारीख को उनका जन्म दिवस मनाते आ रहे हैं?

लाल बहादुर शास्त्री जी का पैतृक घर बनारस में गंगा के दूसरे किनारे पर मौजूद रामनगर में था। वे वहीं पैदा हुए थे लेकिन वे जब दो या तीन साल के रहे होंगे, तभी (1906) उनके नायब तहसीलदार पिता का निधन हो गया ।इस मुसीबत में उनकी मां और तीन बच्चों को उनके नाना ने आश्रय दिया ।उस समय उनके ​नाना मुगलसराय के रेलवे बेसिक स्कूल के हेडमास्टर थे लेकिन दो साल बाद वे भी गुजर गए। इसके बाद उनके नाना के भाई हनकू लाल उस रेलवे स्कूल के हेडमास्टर बने। उन्होंने ही 1911 में अपने नाती का नामांकन इस स्कूल में करवाया। इस स्कूल के पूर्व छात्रों के नामांकन रजिस्टर संख्या 958 में पूर्व प्रधानमंत्री के अभिभावक के रूप में इन्हीं ‘हनकू लाल’ का नाम दर्ज है। शास्त्री जी मुगलसराय के बाद अपनी आगे की पढ़ाई के लिए 1917 में बनारस चले गए ।उन्होंने वहां के हरीश चंद्र हाई स्कूल से अपनी माध्यमिक शिक्षा पूरी की। यहीं उनकी जन्म तिथि बदलकर दो अक्टूबर, 1904 की गई।पिछले कई सालों से मुगलसराय और बनारस के कई संगठन उनकी जन्म तिथि को बदलने की मांग करते रहे हैं ।इन संगठनों का दावा है कि लाल बहादुर शास्त्री की सही जन्म तिथि आठ जुलाई, 1903 ही है। हालांकि उनके बेटे सुनील शास्त्री ऐसा नहीं मानते। वैसे एक वाकये के अनुसार महात्मा गांधी ने एक बार खुद लाल बहादुर शास्त्री से पूछा था कि वे अपना जन्मदिन क्यों नहीं मनाते ।इस पर उन्होंने गांधी जी से कहा था, ‘आपके जन्म दिवस का जश्न मना लेने पर अपना जन्म दिवस मनाने की जरूरत ही नहीं होती।’ अब जबकि पूर्व प्रधानमंत्री को गुजरे पांच दशक से भी ज्यादा बीत गए हैं, तो यह तय करना मुश्किल होगा कि उनकी सही जन्म​तिथि कौन सी है।

बड़े होने के साथ-ही लाल बहादुर शास्त्री विदेशी दासता से आजादी के लिए देश के संघर्ष में अधिक रुचि रखने लगे। वे भारत में ब्रिटिश शासन का समर्थन कर रहे भारतीय राजाओं की महात्मा गांधी द्वारा की गई निंदा से अत्यंत प्रभावित हुए। लाल बहादुर शास्त्री जब केवल ग्यारह वर्ष के थे तब से ही उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने का मन बना लिया था।

गांधी जी ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए अपने देशवासियों से आह्वान किया था, इस समय लाल बहादुर शास्त्री केवल सोलह वर्ष के थे। उन्होंने महात्मा गांधी के इस आह्वान पर अपनी पढ़ाई छोड़ देने का निर्णय कर लिया था। उनके इस निर्णय ने उनकी मां की उम्मीदें तोड़ दीं। उनके परिवार ने उनके इस निर्णय को गलत बताते हुए उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन वे इसमें असफल रहे। लाल बहादुर ने अपना मन बना लिया था। उनके सभी करीबी लोगों को यह पता था कि एक बार मन बना लेने के बाद वे अपना निर्णय कभी नहीं बदलेंगें क्योंकि बाहर से विनम्र दिखने वाले लाल बहादुर अन्दर से चट्टान की तरह दृढ़ हैं।लाल बहादुर शास्त्री ब्रिटिश शासन की अवज्ञा में स्थापित किये गए कई राष्ट्रीय संस्थानों में से एक वाराणसी के काशी विद्या पीठ में शामिल हुए। यहाँ वे महान विद्वानों एवं देश के राष्ट्रवादियों के प्रभाव में आए। विद्या पीठ द्वारा उन्हें प्रदत्त स्नातक की डिग्री का नाम ‘शास्त्री’ था लेकिन लोगों के दिमाग में यह उनके नाम के एक भाग के रूप में बस गया। बाद के दिनों में ‘मरो नहीं, मारो’ का नारा लालबहादुर शास्त्री ने दिया जिसने एक क्रान्ति को पूरे देश में प्रचण्ड किया। उनका दिया हुआ एक और नारा ‘जय जवान-जय किसान’ तो आज भी लोगों की जुबान पर है।वे भारत सेवक संघ से जुड़ गए और देशसेवा का व्रत लेते हुए यहीं से अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की।

क्या दो अक्टूबर के बजाय लाल बहादुर शास्त्री का जन्मदिवस आठ जुलाई है?

1927 में उनकी शादी हो गई। उनकी पत्नी ललिता देवी मिर्जापुर से थीं जो उनके अपने शहर के पास ही था। उनकी शादी सभी तरह से पारंपरिक थी। दहेज के नाम पर एक चरखा एवं हाथ से बुने हुए कुछ मीटर कपड़े थे। वे दहेज के रूप में इससे ज्यादा कुछ और नहीं चाहते थे।1930 में महात्मा गांधी ने नमक कानून को तोड़ते हुए दांडी यात्रा की। इस प्रतीकात्मक सन्देश ने पूरे देश में एक तरह की क्रांति ला दी। लाल बहादुर शास्त्री विह्वल ऊर्जा के साथ स्वतंत्रता के इस संघर्ष में शामिल हो गए। उन्होंने कई विद्रोही अभियानों का नेतृत्व किया एवं कुल सात वर्षों तक ब्रिटिश जेलों में रहे। स्वाधीनता संग्राम के जिन आंदोलनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही उनमें 1921 का असहयोग आंदोलन, 1930 का दांडी मार्च और 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन उल्लेखनीय हैं।

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1937 में उन्हें यूपी के संसदीय बोर्ड के संगठन सचिव के रूप में काम करने से रोका नहीं गया। राष्ट्रवादी सत्याग्रह आंदोलन का हिस्सा बनने के लिए उन्हें फिर से एक साल के लिए जेल भेज दिया गया।उन्हें 1942 में महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने और जवाहरलाल नेहरू के घर से स्वतंत्रता सेनानियों को निर्देश देने के लिए फिर से जेल में डाल दिया गया था। इस बार उन्हें 4 साल की कैद हुई।1946 में जब कांग्रेस सरकार का गठन हुआ तो इस ‘छोटे से डायनमो’ को देश के शासन में रचनात्मक भूमिका निभाने के लिए कहा गया। उन्हें अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश का संसदीय सचिव नियुक्त किया गया और जल्द ही वे गृह मंत्री के पद पर भी आसीन हुए। कड़ी मेहनत करने की उनकी क्षमता एवं उनकी दक्षता उत्तर प्रदेश में एक लोकोक्ति बन गई।1947 में, शास्त्री को उत्तर प्रदेश के पुलिस और परिवहन मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया था।

भारतीय सैनिकों के साथ शास्त्री

1951 में उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का महासचिव बनाया गया। अगले साल बाद में, उन्हें राज्यसभा के लिए चुना गया और उन्हें रेल और परिवहन मंत्री बनाया गया।हालाँकि भारत के रेलवे और परिवहन का विकास उनके अधीन हुआ, लेकिन उन्होंने 1952 में तमिलनाडु में एक रेल दुर्घटना की जिम्मेदारी लेते हुए पद से इस्तीफा दे दिया, जिसमें लगभग 112 लोगों की मृत्यु हो गई।1957 में, उन्हें फिर से वाणिज्य और उद्योग मंत्री के रूप में कैबिनेट के लिए चुना गया और 4 साल के भीतर उन्हें गृह मंत्री के प्रतिष्ठित पद के लिए चुना गया।जब 1964 में भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु हुई, तो कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष कामराज ने शास्त्री का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए आगे रखा। उन्हें उसी वर्ष भारत का प्रधान मंत्री चुना गया।प्रधान मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के तहत, शास्त्री ने 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान देश का नेतृत्व किया और इस युद्ध के दौरान उन्होंने “जय जवान जय किशन” का नारा गढ़ा। इसने जल्द ही राष्ट्रीय नारा शुरू किया।1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध विराम घोषित होने के बाद, उन्होंने पाकिस्तानी राष्ट्रपति मुहम्मद अयूब खान के साथ ताशकंद में एक शिखर सम्मेलन में भाग लिया। बाद में अगले साल, दोनों नेताओं ने ताशकंद घोषणा पर हस्ताक्षर किए।

ताशकंद घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने के अगले दिन, 1966 में ताशकंद में उनकी मृत्यु हो गई, कथित तौर पर दिल का दौरा पड़ने के कारण, लेकिन उनकी मृत्यु एक रहस्य बनी हुई है।शास्त्रीजी  पहले व्यक्ति थे जिन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार, भारत रत्न से सम्मानित किया गया था।

वे 1951 में नई दिल्ली आ गए एवं केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई विभागों का प्रभार संभाला – रेल मंत्री; परिवहन एवं संचार मंत्री; वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री; गृह मंत्री एवं नेहरू जी की बीमारी के दौरान बिना विभाग के मंत्री रहे। उनकी प्रतिष्ठा लगातार बढ़ रही थी। एक रेल दुर्घटना, जिसमें कई लोग मारे गए थे, के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। देश एवं संसद ने उनके इस अभूतपूर्व पहल को काफी सराहा। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इस घटना पर संसद में बोलते हुए लाल बहादुर शास्त्री की ईमानदारी एवं उच्च आदर्शों की काफी तारीफ की। उन्होंने कहा कि उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री का इस्तीफा इसलिए नहीं स्वीकार किया है कि जो कुछ हुआ वे इसके लिए जिम्मेदार हैं बल्कि इसलिए स्वीकार किया है क्योंकि इससे संवैधानिक मर्यादा में एक मिसाल कायम होगी। रेल दुर्घटना पर लंबी बहस का जवाब देते हुए लाल बहादुर शास्त्री ने कहा; “शायद मेरे लंबाई में छोटे होने एवं नम्र होने के कारण लोगों को लगता है कि मैं बहुत दृढ नहीं हो पा रहा हूँ। यद्यपि शारीरिक रूप से में मैं मजबूत नहीं है लेकिन मुझे लगता है कि मैं आंतरिक रूप से इतना कमजोर भी नहीं हूँ।”

File Photo- Getty Images

अपने मंत्रालय के कामकाज के दौरान भी वे कांग्रेस पार्टी से संबंधित मामलों को देखते रहे एवं उसमें अपना भरपूर योगदान दिया। 1952, 1957 एवं 1962 के आम चुनावों में पार्टी की निर्णायक एवं जबर्दस्त सफलता में उनकी सांगठनिक प्रतिभा एवं चीजों को नजदीक से परखने की उनकी अद्भुत क्षमता का बड़ा योगदान था।तीस से अधिक वर्षों तक अपनी समर्पित सेवा के दौरान लाल बहादुर शास्त्री अपनी उदात्त निष्ठा एवं क्षमता के लिए लोगों के बीच प्रसिद्ध हो गए। विनम्र, दृढ, सहिष्णु एवं जबर्दस्त आंतरिक शक्ति वाले शास्त्री जी लोगों के बीच ऐसे व्यक्ति बनकर उभरे जिन्होंने लोगों की भावनाओं को समझा। वे दूरदर्शी थे जो देश को प्रगति के मार्ग पर लेकर आये। लाल बहादुर शास्त्री महात्मा गांधी के राजनीतिक शिक्षाओं से अत्यंत प्रभावित थे। अपने गुरु महात्मा गाँधी के ही लहजे में एक बार उन्होंने कहा था – “मेहनत प्रार्थना करने के समान है।” महात्मा गांधी के समान विचार रखने वाले लाल बहादुर शास्त्री भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठ पहचान हैं।

शास्त्री जी जब 1964 में प्रधानमंत्री बने, तब उन्हें सरकारी आवास के साथ ही इंपाला शेवरले कार मिली, जिसका उपयोग वह न के बराबर ही करते थे। वह गाड़ी किसी राजकीय अतिथि के आने पर ही निकाली जाती थी। एक बार उनके पुत्र सुनील शास्त्री किसी निजी काम के लिए इंपाला कार ले गए और वापस लाकर चुपचाप खड़ी कर दी। शास्त्री जी को जब पता चला तो उन्होंने ड्राइवर को बुलाकर पूछा कि कितने किलोमीटर गाड़ी चलाई गई? और जब ड्राइवर ने बताया कि चौदह किलोमीटर, तो उन्होंने निर्देश दिया कि लिख दो, चौदह किलोमीटर प्राइवेट यूज। शास्त्री जी यहीं नहीं रुके बल्कि उन्होंने अपनी पत्नी को बुलाकर निर्देश दिया कि उनके निजी सचिव से कह कर वह सात पैसे प्रति किलोमीटर की दर से सरकारी कोष में पैसे जमा करवा दें।शास्त्री जी खुद कष्ट उठाकर दूसरों को सुखी देखने वाले लोगों में से थे, एक बार जब शास्त्री जी रेल मंत्री थे और बम्‍बई जा रहे थे। उनके लिए प्रथम श्रेणी का डिब्बा लगा था। गाड़ी चलने पर शास्त्री जी बोले- डिब्बे में काफ़ी ठंडक है, वैसे बाहर गर्मी है। उनके पीए कैलाश बाबू ने कहा- जी, इसमें कूलर लग गया है। शास्त्री जी ने पैनी निगाह से उन्हें देखा और आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछा- कूलर लग गया है?… बिना मुझे बताए? आप लोग कोई काम करने से पहले मुझसे पूछते क्यों नहीं? क्या और सारे लोग जो गाड़ी में चल रहे हैं, उन्हें गरमी नहीं लगती होगी? शास्त्रीजी ने कहा- कायदा तो यह है कि मुझे भी थर्ड क्लास में चलना चाहिए, लेकिन उतना तो नहीं हो सकता, पर जितना हो सकता है उतना तो करना चाहिए। उन्होंने आगे कहा- बड़ा गलत काम हुआ है। आगे गाड़ी जहाँ भी रुके, पहले कूलर निकलवाइए।मथुरा स्टेशन पर गाड़ी रुकी और कूलर निकलवाने के बाद ही गाड़ी आगे बढ़ी। आज भी फर्स्ट क्लास के उस डिब्बे में जहां कूलर लगा था, लकड़ी जड़ी है।

 

 

 

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